मैं लौटने ही लगा था परदेश से ,
की तुमसे जा टकराया ,
बचा कुछ नहीं था देने को ,
ये चूड़ियां ले आया ।
हर तरफ मंज़र बहुत बदहाल था ,
हर शख्स बुरे हाल था ,
बाटने आया चंद खुशियां और
लम्हें जिनका मैं कर्जदार था ।
पहली नजर में देख कर तुझे ,
खुदा से शिकायत कर बैठा ,
हाथों में पड़े सन्नाटे को ,
चूड़ियों के शोर से तोड़ बैठा ।
आज भी तेरा चेहरा मेरे जहन में ,
ठीक वैसे ही जिंदा है ,
देख कर हाल तेरा ,
आज भी निगाहें शर्मिंदा है ।
क्या थी मेरी मजबूरियां ,
जो कम पड़ गई चूड़ियां ,
खूबसूरत आंखो के साथ ,
चहरे पर अनगिनत उनके झुर्रियां ।
तुम खूबसूरती की मूरत थी ,
खुशियों की जिसे सख्त जरूरत थी ,
पर क्या ही और तुझे मैं दे पाता ,
मेरे बस में होता गर ,
उस दलदल से तुम्हें ले आता ।
जिस्म से नहीं तुम्हारी रुह से मैं जुड़ गया ,
आखिरी अलविदा कह कर भी मैं मुड़ गया ,
देखा तो तुम थोड़ी मायूस खड़ी थी ,
और वो हाथों की चूड़ियां भी खामोश पड़ी थी ।।
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