आंखे और झुमकों से ,
आज बात कुछ आगे बढ़ी थी ,
पहली दफा नकाब हटा कर ,
वो मेरे सामने खड़ी थी ।
निशा कुछ रंग के ,
नकाब पर भी बिखर चुके थे ,
बिछड़ने पर होठों से ,
उसके निशा लेकर बट रहें थे ।
दाग तो लगा था नकाब पर ,
मुझ पर लगना बाकी था ,
होठों की शरारत उनके ,
ये बताने के लिए काफी था ।
रंग चढ़ा होठों पर लाल ,
मैं नज़रे कैसे उससे चुराता ,
हाले दिल छिपा रखा था जो ,
होठों पर अब कैसे लाता ।
रंग और भी जचता होगा ,
जब वो खुद को संवारती होगी ,
आफत आने से मिट जाने पर ,
खुद से आईने में सजाती होंगी ।
इश्क़ सा ही तो होठों पर ,
मौजूद श्रृंगार होता है ,
बटने को निभाने वाले से ,
अक्सर बेकरार होता है ।।
No comments:
Post a Comment