आज भी शाम को ,
वो छत पर आती होगी ,
किसी परिंदे को कैद करने ,
निगाहों का पिंजड़ा लाती होगी ।
बहुत परिंदे उड़कर ,
उसके छत पर आते होंगे ,
समझ कर आसमां उसे ,
पिंचड़े में फंस जाते होंगे ।
इश्क़ उनसे भी मुझसा ,
वो निभाती होगी ,
उंगलियों से आज भी ,
बिखरे जुल्फ सुलझाती होगी ।
कहानियों में उसके दर्द ,
और जिल्लत का जिक्र होगा ,
कर रहा कोई नया परिंदा ,
उसकी फिक्र होगा ।
आज भी किसी कैद परिंदे को ,
आजादी का पाठ पढ़ा रही होगी ,
कैद में रख कर जिसे ,
आजाद बता रही होगी ।।
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