Wednesday, September 29, 2021

बदनसीब मां

जिस रोज़ मुझे घसीट कर ,
दहलीज तक वो लाय थे ,
छीन कर मेरे लाल को ,
मुझे चौखट पर छोड़ आए थे ।

मैं तड़प रही थी उसके आस में ,
था नहीं कोई भी खड़ा मेरे पास में ,
जुल्म मेरा बस मेरी एक "ना" थी ,
किसी के हरकतों से मैं खफा थी ।

जब निकली उस चौखट से ,
आजाद हो कर भी कैद हो गई ,
अपने जिगर के टुकड़े के बगैर ,
मैं इस जहां में अनाथ हो गई ।

हर सुबह पहला ख्याल भी उसका ,
हर रात भी वही आखिरी होता है ,
आज भी लगती चोट गर कभी ,
मेरा ही नाम लेकर रोता है ।

मेरी आंखो में हर वक्त नमी ,
उसकी कमी को बताता हैं ,
बगैर बच्चे के किस मां को ,
भला सुकून मिल पाता है । 

मेरे हिस्से के गम को ,
बस वही कम कर पायेगा ,
लौट कर मेरा लाल ,
जब मुझे गले लगाएगा । 

वो मां कितनी बदनसीब होती होगी ,
कोख में पलने वाले से ,
जब कभी किसी गैर के खातिर ,
मुझ जैसे दूर होती होगी ।।

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