मैं सफर का राही ऐसा ,
मिला मंजिल भी मुझ जैसा ,
सब कुछ धुंधला नजर आता है ,
जब भी ढूंढने उसे कोई निकल जाता है ।
थाम कर हाथ मेरा अक्सर ,
अपने मंजिल तक मुसाफ़िर आते है ,
मिलते ही पहचाने रास्तों पर ,
छोड़ मेरा हाथ चले जाते है ।
सपना भी देखते साथ ,
और ख़्वाब भी सजाते है ,
मिलते ही मंजिल का पता ,
हमें गैर बताते है ।
मैं शायद आप सा ,
या आप मुझ जैसे तो लगते है ,
अक्सर थाम कर हाथ जिनका ,
गुमनाम सड़को पर लोग चलते है ।
वक्त बदलते ,
इंसान आखिर क्यों ,
बदल सा जाता है ,
मुश्किल में थामे हाथ को छोड़ ,
अपनो को गैर ,
और गैरों को अपना बनाता है ।
मतलबी दुनिया में आज भी ,
हम जैसे कुछ बेमतलब ,
अक्सर फिर वही गलती दोहराते है ,
मिलने पर मंजिल हमें लोग ,
अक्सर छोड़ कर चले जाते है ।
कामयाब होने पर अपनो को खो देना ,
क्या सच में कामयाब बनाता है ,
आखिरी वक्त में कंधे पर ,
अपनो के ही आना पड़ता है ।
मतलबी दुनिया में आज भी ,
कुछ बेमतलब ही अपना बना रहें ,
अंजान सड़को पर अजनबी को ,
रास्ता दिखा रहें ।।
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