Saturday, September 4, 2021

कबूलनामा

तुम सज संवर कर उस रोज़ ,
जब महफिल में आई थी ,
ख्वाबों की पोटली से ,
एक लम्हा चुरा लाई थी ।

वो बाली .. वो झुमके और ,
तेरे आंखो में बसा नूर ,
डूब रहा था जिनमें वो,
हो कर मजबूर ।

होठों पे बसी खामोशी और 
हया से झुकी पलके तुम्हारी ,
तुम्हें और दिलकश बना रही थीं ,
बार बार उसकी निगाहें ,
बस तुम पर आ रही थीं ।

वो पल वो लम्हा और तुम ,
सब अब तक कल से अंजान थे ,
तुम उनकी मुमताज़ और ,
वो तुम्हारे शाह जहाँ थे ।

कबूल करने की जिद्द ,
या काबिल होने का वक्त ,
अब दोनों ही गुजर चुके थे ,
वो तो बस अब तेरे हो चले थे ।

काश वक्त गर यहीं रुक जाता ,
तो आज क्या ही बात होती ,
अनगिनत दिए जख्मों पर ,
मरहम की सौगात होती ।

पर वक्त को मंजूर तेरे हिस्से ,
कुछ और ही करना था ,
खुशियों के बगैर जीना ,
और गम से तुझे मरना था ।।

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