Wednesday, September 15, 2021

सिंदूर

मांग में सिंदूर और मेंहदी का रंग ,
दोनों कितना खिल रहे थे ,
आईने में हम भी तो ,
एक नई पहचान से मिल रहे थे ।

एक जुल्म मेरी आंखों में ,
अब चिल्ला रहा था ,
तस्वीर किसी और की ,
मुझे वो दिखा रहा था ।

पर ये रास्ते तो बंद मैंने ही ,
अपने हाथों से किए थे ,
भला आज मेरे जहन में ,
क्यों वो लौट रहे थे ।

एक पल में लगा जैसे ,
ये कैसा गुनाह मैं कर बैठी ,
मोहबब्त किसी से बेपनाह ,
किसी और के नाम का सिंदूर लगा बैठी ।

लौट आई मैं छोड़ कर सब ,
अपने महबूब के बाहों में ,
अनगिनत भूले भटके सफर के बाद ,
अपनी जिंदगी के राहों में ।

कितना शांत और सुंदर ,
इस वक्त का मंजर है ,
भीतर मुझमें लहरों से भरा ,
अंतहीन मोहबब्त का समंदर है ।।

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