दोनों कितना खिल रहे थे ,
आईने में हम भी तो ,
एक नई पहचान से मिल रहे थे ।
एक जुल्म मेरी आंखों में ,
अब चिल्ला रहा था ,
तस्वीर किसी और की ,
मुझे वो दिखा रहा था ।
पर ये रास्ते तो बंद मैंने ही ,
अपने हाथों से किए थे ,
भला आज मेरे जहन में ,
क्यों वो लौट रहे थे ।
एक पल में लगा जैसे ,
ये कैसा गुनाह मैं कर बैठी ,
मोहबब्त किसी से बेपनाह ,
किसी और के नाम का सिंदूर लगा बैठी ।
लौट आई मैं छोड़ कर सब ,
अपने महबूब के बाहों में ,
अनगिनत भूले भटके सफर के बाद ,
अपनी जिंदगी के राहों में ।
कितना शांत और सुंदर ,
इस वक्त का मंजर है ,
भीतर मुझमें लहरों से भरा ,
अंतहीन मोहबब्त का समंदर है ।।
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